जयंती विशेष
राष्ट्रीय चेतना के कवि थे दिनकर : सत्यम् कुमार राय
धनबाद। अपने लेखनी की तपिश से फिरंगी हुकूमत की जड़ों के तप्त कर जन-जन में राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष करने वाले, विद्रोही कवि से राष्ट्रकवि के रूप में प्रतिष्ठित, ओज एवं माधुर्य के कवि राष्ट्रकवि “दिनकर हिंदी साहित्य के वह सूर्य है जो सदैव अपनी काव्य प्रखरता, ओजस्विता, वाणी की स्पष्टता एवं प्रखर राष्ट्रवाद के कारण जन-जन के मानस पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ देते हैं । “दिनकर” का काव्य एवं उनका काव्य वर्णन ऐसा है, मानों स्वयं घटनायें आँखों के सामने घटित हो रही हों, वेदना शून्य व्यक्ति भी उनके काव्य को पढ़कर अपनी रगों में खून के उबाल को सहज ही महसूस कर सकता है। सूखी तंतुकी में अपने काव्य तेज से रक्त के प्रवाह को गति देने वाले प्रखर चिंतक, कुशल निबंधकार, दूरदर्शी राजनेता, उत्कृष्ट साहित्यकार एवं भारतीय एवं भारतीयता के धुर समर्थक “राष्ट्रकवि दिनकर” ओज के कवि थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा राष्ट्रजागरण का शंखनाद किया ।
अपने नैसर्गिक स्वभाव में सौभ्यता एवं मृदुभाषिता को सहेजे “रामधारी” सिंह “दिनकर” राष्ट्र प्रेम की अकूत भावना से परिपूर्ण थे, लोगों की अन्यान्य बातों पर उनका उत्तर सामान्य रहता, परंतु जैसे ही बात राष्ट्र के हितों की होती उनकी अक्रामकता एवं राष्ट्र के प्रति समर्पण सहज ही परिलक्षित होने लगता था, और शायद यही कारण भी है की दिनकर के काव्य में राष्ट्र प्रेम की ओजस्विता फूट-फूटकर बहती है। “दिनकर” राष्ट्र-प्रेम एवं राष्ट्र हितों को सर्वोपरि मानते हुए राष्ट्र-हित के विषयों पर तिल मात्र भी समझौते को तैयार नहीं होते थे । उनका राष्ट्र प्रेम “परशुराम” सा था जो भारत चीन युद्ध में भारत को मिली हार पर उनके आहत हृदय की वेदना एवं उसके पुकार स्वरूप निकले काव्य “परशुराम की प्रतीक्षा” में स्पष्ट परिलक्षित होता है। स्वभाव में चंद्रमा की शीलता को धारण करने वाले “दिनकर” का स्वरूप जब बात देश के हितों की होती तो मार्तण्ड सा प्रचंड हो जाता था।
राष्ट्रकवि दिनकर एक कवि की नहीं एक सच्चे समाज सुधारक एवं माँ भारती के अन्नय भक्त भी थे | जिन्होंने भारत चीन युद्ध 1962 में मिली भारत की हार हेतु दोषी बताते हुए अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए
रौद्र रूप लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं अपने मित्र जवाहर लाल नेहरु को भी भरी संसद में अपने तीक्ष्ण बाणों से आहट करने में कोई कसर नही छोड़ी । नेहरु जी के परम मित्र होने एवं उनकी अनुशंसा पर राज्य सभा में सांसद बने “दिनकर” का राष्ट्र प्रेम उनके लिए रिश्तों से सर्वोपरी था ।
उनकी स्पष्टवादिता का एक और किस्सा चर्चित है, जब लाल किले पर आयोजित एक कवि सम्मेलन में
नेहरू जी एवं दिनकर जी साथ-साथ जा रहे थे, तभी नेहरु जी का पैर सीढियाँ चढ़ते हुए डगमगा गया और वह अपना संतुलन खो बैठे तब साथ में ही चल रहे दिनकर जी ने उनको त्वरित उनको सम्भाला इस पर नेहरु जी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा – “धन्यवाद दिनकर जी अगर आज आप नहीं होते तो
मैं तो गिर ही जाता” इस बात को सुनकर राष्ट्रकवि दिनकर ने जो कहा वह आज भी भारतीय राजनीति एवं साहित्य के लिए ऐतिहासिक उत्तर के रूप में दर्ज है | उन्होंने नेहरु जी के धन्यवाद का प्रत्युत्तर देते हुए मुस्कुराकर कहा कि “घबराइये नहीं प्रधानमंत्री जी “राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है”
- कक्षा 8 वीं में दिनकर जी ने अपनी पहली काव्य रचना “ वीरबला” लिखी जिसके पश्चात उनकी दूसरी रचना “प्राणभंग” दसवीं में प्रकाशित भी हो गई। साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ एवं पद्मभूषण जैसे पुरस्कार प्राप्त युग कवि दिनकर की ने अपने श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक कालजयी रचना “रश्मिरथी” की रचना की, जिसे अकूत प्रसिद्धि मिली। प्रेम एवं माधुर्य का काव्य “उर्वशी” उनकी कल्पना की विराटता एवं प्रेम एवं शृंगार को प्रगट करने की अद्भुत कला का साक्षात उदाहरण है। भौतिकता में फँसे मनुष्य को “ कुरुक्षेत्र” के माध्यम अनंत काल तक गीता का पाठ पढ़ाने वाले दिनकर भारतीय साहित्य के वह सूर्य है, जिससे आने वाली पीढ़िया सदैव आलोकित होती रहेंगी।